आखिर जिम्मेदारी किसकी?

रिपोर्टर पुरुषोत्तम मिश्रा
जी हां आज मैं खुद से, सरकार से और आप सभी प्रबुद्धजनों के सामने एक सवाल लेकर आया हूं कि आखिर जिम्मेदारी किसकी है।
बात है आज से करीब 22 – 23 साल पहले की तब मैं करीब 6 – 7 साल का था जिसकी मेरे मस्तिष्क में कुछ धुंधली सी तस्वीरें है। हमारा गांव हरा – भरा गांव था बहुत सारे बड़े बड़े आम के पेड़ थे, आज तो उनका नाम – निसान तक मिट चुका है। लोग तपती हुई गर्मी के बाद बारिश के मौसम का इंतजार करते थे साथ ही इंतजार होता था अपने हिस्से की जमीनों में सुनहरे फसल बोने का।
आषाढ़ और सावन के महीने में जैसे ही आसमान से बारिश की बूंदे गिरती थी वैसे ही गांव के किसान, भूस्वामी, बटाईदार मजदूर और अपने जीवन यापन के लिए काेलिया ( किसी भूस्वामी द्वारा अपनी जमीन का एक छोटा टुकड़ा मजदूर को उसके जीवन निर्वाह के लिए तब तक के लिए देना जब तक वह उस भूस्वामी के खेतों में किसानी का कार्य कराए) लेकर किसी के यहां पूरा किसानी का कार्य अपनी जिम्मेदारी पर करवाने वाले मजदूर सब खुश और उत्साहित हो जाते थे।
उस समय हमारे दादाजी गांव के सरपंच थे और किसानी की सारी बागडोर मुन्नीलाल कक्कू के हांथ में थी। वो भी पूरी ईमानदारी तथा निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते थे, हम लोग भी उन्हें अपने परिवार का हिस्सा समझते थे।
मुझे याद है उस समय हमारे यहां 4 मवेशी थे, जिसमें 2 गाय तथा 2 बैल थे। उस समय गाय की इज्जत तो ज्यादा थी लेकिन कीमत बैल की अपेक्षा बहुत कम थी। हमारे गांव के हर व्यक्ति को पता था कि हमारे दादाजी अपने मवेशियों के ऊपर एक मक्खी तक नहीं बैठने देते थे, मवेशियों के रहने का स्थान साफ सुथरा तथा सूखा रहे इसके लिए वो रात में भी नियमित 2 बार जग कर उनको बाहर करते थे, और मवेशी भी इतने समझदार थे कि बाहर जाकर ही मलमूत्र त्याग करते थे।
जैसे ही बरसात शुरू होती थी किसान और मजदूर बैलों को हल के साथ साज कर खेतों की ओर चल पड़ते थे और पानी से भरे हुए खेतों में खुशी के साथ झूमते- गाते हुए खेतों की जोताई शुरू करते थे और हम बच्चे हल के पीछे कोपर चढ़ने के भागते ।
आज समय बदल गया था और गांव भी बदल गया है यहां रहने वाले लोग बदल गए हैं साथ ही लोगो की मानसिकता बदल गई है कुछ भी पहले जैसा नहीं बचा।
आज लोगों के पास समय नहीं है न ही श्रम बल बचा है हल का अस्तित्व खत्म हो चुका है बैलों के सारे काम ट्रैक्टर और मशीनों के जिम्मे आ चुका है। अब बैल बेचारे बेरोजगार हो गए हैं और बेरोजगार सबके लिए बोझ होता है उसको सबकी दुत्कार सहनी पड़ती है।
मेरे मन में तो ये बात बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन आज मैं रीवा गया था , मेरे घर और रीवा के बीच में करीब 500 मवेशी मुझे सड़क पर मिले जिनमें से 4-5 वाहनों की चपेट में आकर काल के गाल में भी समाए हुए दिखे।
मुझे दुःख उन मृत मवेशियों को देखकर नहीं हुआ अपितु जो जिंदा थे और शायद प्रतिपल अपने मृत्यु के इंतजार में थे उनको देखकर हुआ, उनको देखकर ऐसा लगा जैसे ये अपने जीवन का मोह खत्म कर चुके हैं ;ये वही मवेशी है जो किसानो के ‘ पैना ‘ देखकर आंख मूंदकर भागते थे आज बड़े बड़े ट्रक देखकर भी अपनी जगह से नहीं हिलते।
अब मेरा सवाल है कि क्या मनुष्य सचमुच में सबसे विवेकशील प्राणी है? क्योंकि हम अपना काम निकलवाना जानते हैं जो हमारे काम का नहीं उसका अस्तित्व तक मिटाने को तैयार रहते हैं।
क्या सचमुच में ये सृष्टि मनुष्य को केंद्र में रखकर बनी है? मनुष्य के जो उपयोग लायक हो उसे रहना है अन्यथा डस्टबिन में फेंक देना है।
मैं पशु हत्या का विरोधी हूं लेकिन एक और गहरा सवाल है क्या सचमुच बूचड़ खाने बंद करने से पशुओं की हत्या रुकेगी या वे और बुरी तरह तड़प तड़प कर मर रहे हैं।
आखिर इन पशुओं का होगा क्या, क्या मनुष्य में इतना सामर्थ्य है कि वह इनका अस्तित्व खत्म कर सके?
क्या सचमुच में किसानो की फसल को पशु नष्ट कर रहे हैं या फिर पशुओं की नस्ल को मनुष्य खत्म करने पर आमादा है?
बहुत कुछ है लेकिन आपके पास भी समय का अभाव होगा इसलिए इतना ही ..
सवाल वही है “आखिर जिम्मेदारी किसकी हैं?”
हमारी, आपकी, सरकार की, भगवान की या फिर खुद इन बेजुबान पशुओं की…….
आपका – अभिषेक मिश्रा
(परमहंस विद्यापीठ नईगढ़ी)