नवदुर्गा व्रत रहस्य
ज्योतिषी डॉ. कविता शर्मा
रिपोर्टर/विश्वजीत सेन
भारतीय सनातन संस्कृति में हर त्यौहार और हर व्रतोपवास मानव जीवन के कल्याणार्थ हैं। अगर व्रत या त्यौहार न हो तो मानव बस भोग विलास के साधन में जुटा रहता और एक दिन अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता । इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने अपने अन्तर ज्ञान से व्रत और त्यौहारों की खोज कर नियम आदि बनाए ताकि मानव इस जीवन का सुख भी भोग ले और परमपिता का सानिध्य भी प्राप्त कर ले । हर व्रत के पिछे कोई न कोई गोपनीय ज्ञान छुपा है और वह हमें हमारे मन को मथने से अर्थात चिंतन से मिलेगा । इन व्रतों की श्रंखला में अब आ रही है अश्विन मास शुक्ल पक्ष की नवरात्रि । जैसे कि नाम से ही पता चलता है कि देवी,रात्रि में जागृत होगी और इन नौ दिवस में अन्न का त्याग कर फल आहार करना है । यहाँ अन्न से तात्पर्य उस अन्न से है जिसे श्रीमद्भागवत गीता में अन्नाद भवन्ति भूतानि के माध्यम से परिभाषित किया गया है । हमें उस अन्न का त्याग करना है ।देवी के स्वरूपों की आराधना में प्रथम शैलपुत्री-पहले दिन से ही हमें हमारे शील की रक्षा करना है और शील रक्षा हेतु एकांत में रहना ,बहुत मिर्च-मसाला नहीं लेना,राजसी भोजन का त्याग,शुद्ध सात्विक भोजन लेना चाहिए। द्वितीय ब्रह्मचारिणी–नौ दिन ब्रह्मचर्य का पालन करें । ब्रह्मचर्य का पालन तभी होगा जब हम मन और बुद्धि को परमात्मा में लगाए रखें । तृतीय चंद्रघंटा — हमें हमारे मन को चंद्रमा की तरह भक्तिभाव में बढ़ते हुए क्रम से ले जाना है । जैसे चंद्रमा शुक्ल पक्ष में अपनी कलाओं को बढाता है । चतुर्थ कुष्मांडा — हमारे तमोगुण को कृष करने के लिए प्रथम चार दिवस की साधना सहायक होगी और हमारी तमोगुणी भावनाएं कृष हो तभी तो भक्ति की ओर बढ़ेंगे। पंचम स्कंदमाता- जब हमारी भक्ति बढती है तो हमारी मनोवृति अनेक प्रकार के भावों को त्याग कर एकत्व की और बढ़ती है । एक शक्ति के अलावा हमें किसी पर विश्वास नहीं होता । षष्ठम कात्यायनी — हमारे शरीर में कृत्या नाम के राक्षसी को मारने वाली माता । कृत्या वह राक्षसी है जो भोग की ओर मानव को ले जाती है । जब हम पाचों नियम का पालन करते हैं तब हमारा मन भोग-विलास से दूर हटने लगता है । सप्तम कालरात्रि–देवी कालरात्रि मतलब हमारे जीवन के काल की गणना होना कम हो गई और हमारा आयु भाव बढ़ जाएगा । कालरात्रि की साधना से यह स्थिति प्राप्त होती है। अष्टम महागौरी–आठवें दिन वह शक्ति हमारे शरीर में इतनी प्रभावशाली होगी की हमारा गौरव बढ़ाने लगेगी । भक्ति को बल देगी । महान गौरव की प्राप्ति होगी । गौरी से तात्पर्य शुद्ध से है और आत्मा से शुद्ध और कोई नहीं है। इससे आत्मवान बनते हैं। यही हमारी महागौरी देवी का आशिर्वाद है। नवम सिद्धिदात्री — जब हम तन,मन तथा चित्त से आराधना में लगे रहते हैं और नवम रात्रि यज्ञ, जोड़े से करते हैं तब हमें सिद्धि प्राप्त होती है । यह सिद्धि,जीवन मरण के बंधन से मुक्त होने की है। इस प्रकार से नवदुर्गा का महत्व है । सभी व्रत केवल और केवल मोक्ष गति के लिए है अन्य कोई प्रयोजन नहीं है ।