विलुप्त परंपरा: मेले में सिनेमा, सर्कस, नौटंकी होते थे मानव जीवन के मनोरंजन का बड़ा साधन! आधुनिकता की दौड़ में खत्म हो गया महत्व

रिपोर्ट जे के मिश्र
बिलासपुर कोरबा/पाली:- मेले कभी मानव जीवन के मनोरंजन का बड़ा साधन होते थे। जिसमे शामिल सिनेमा, सर्कस, नौटंकी जीवन की नीरसता को तोड़ते थे और जीवन मे रंग भरने का काम करते थे। रोजमर्रा के कामकाज से परेशान व्यक्ति को सुकून देते थे, आम जीवन को यह ऊर्जान्वित करने का काम भी करते थे, तो वहीं मनोरंजन के साधन में काम करने वाले कलाकारों के गृहस्थ जीवन मे भी उमंग भरते थे और कार्य की अधिकता एवं आमदनी की निरंतरता उन्हें समर्पण के साथ मेले से जोड़ कर रखने का काम करती थी। लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में अब परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल होकर रह गई है। हालांकि पाली में इन दिनों मेला लगा है, लेकिन मेले में डेढ़- दो दशक वाली रौनक नही रही। करीब डेढ़ दशक पहले तक पाली मेले में विभिन्न प्रकार की दुकाने, होटल, झूले, मीना बाजार, खिलौनों की दुकानो के साथ- साथ सिनेमा, सर्कस व नौटंकी मानव जीवन के मनोरंजन का बड़ा साधन होने के साथ विशेष आकर्षक भी होते थे। जिसका इंतजार पूरे साल भर किया जाता था और मेले के दिन करीब आते ही बच्चे, युवा, बुजुर्ग, महिलाओं का इन मनोरंजन के साधनों को लेकर उत्साह बढ़ जाता था। जिसे देखने न केवल स्थानीय बल्कि आसपास ग्रामीण इलाकों से भी लोग बड़ी संख्या में पहुँचते थे। लेकिन जैसे- जैसे मोबाईल का दौर आया, आधुनिकता के दौरान मेले में लोगों की रुचि सिनेमा, सर्कस, नौटंकी से हट गई और इनका महत्त्व लगभग खत्म सा हो गया। ऐसे में इन कलाकारों की कमाई ही नही रही तो मेले से इनकी भी दूरी बढ़ती चली गई। इस कारण इनसे जुड़े लोग बेरोजगार होते चले गए। अब उन्हें पेट पालने के लिए दूसरे रोजगार करने की नौबत आ गई है। इसे लेकर यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि परंपरावादी ग्राम्य कला- संस्कृति का लोप मेले को निगलता चला गया तो मेले की विलुप्ति कलाकारों को लील गई…! हालिया दिनों में विकल्प के रूप में मौत का कुंआ लगभग हर मेले में मिल जाता है, लेकिन धीरे- धीरे बढ़ती महंगाई ने इस जोखिम भरे खेल को भी कमजोर कर दिया है और जिसकी भी रौनक खत्म होते जा रही है। अब हाल यह है कि झूले, मीना बाजार, फास्ट फूड की दुकाने सहित जरूरतों के सामानों की दुकाने मेले की रस्म अदायदी कर रही है।